और ना ही हो सकता है
उस आदम से
इस मानुस तक
हमने यही किया है
और ताज्जुब है
हरबार सोचा की
कुछ नया किया है
फिर एक दिन
उस सच से
होता है साक्षात्कार
की ये तो नया
है ही नहीं
और तब होती है
जंग शुरू,
सच बनाम विश्वास.
उस संकट में
काम आते है
बड़े बड़े नाम
बताइए एइन्स्तिएन
ने नया नहीं किया?
बताइए जो पहले
चाँद पे गया, क्या
उसने भी नया नहीं किया.
पर सच
जवाब नहीं देता
सच तो बस
होता है
आप खुद ही
वितर्क खोजते हैं
जो खोजते है तो
तर्क को भी
आस पास ही पाते हैं
अंततः अपनी जिरह में
आप हरा देते हैं
खुद को
और वो सच
भाग निकलता है
छुपता फिरता है
सालों तक
तर्कों की पुलिस से
फिर होता है प्रदर्पित
जब आप किसी
चोटी पे खड़े
कर रहे होते है
सीना चौड़ा
और दोहराता है
वही सालों पुरानी बात
'इसमें नया क्या है'?
कैसा हो अगर
खो जाये
हम सबकी याददाश्त?
हर किताब जल जाये
हर अक्षर मिट जाये?
तब सब नया लगेगा
शायद.
इसीलिए मैं
मंदबुद्धि होना चाहती हूँ
सब हो चूका है
इस निष्कर्ष को
खोना चाहती हूँ.
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