वो अन्दर था
जब हम पत्थर
बजा रहे थे
त्रिश्नाएं वो
बटोर रहा था
जब घास हम
सुलगा रहे थे
विछेद रहा था
असंभव, वो
जोड़ रहा था
अद्भुत
कई साल तक
हम आग
सुलगते रहे
वो रहा
अन्दर गुम
फिर एकदिन
उसकी रचना,
थी तैयार
सपना उसदिन
हमने देखा
जो कुछ भी
हाथ में था
गिर गया
जो बरसों से
नहीं जली थी
उसदिन
वो आग
भभक उठी
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